Diabetes

Aritcle written by Dr Satsh Agrawal (MD Ayurved, Founder – Sparsh Ayurveda) on “Diabetes and its prevention in Ayurveda” was published in Dabus Vikas Magazine in Feb’19 edition. Same has been published in this blog for benefit of readers.

 

नीम जामुन करेला- मधुमेह का है अधूरा इलाज

भारत में तेज़ी से बढ़ते मधुमेह के कदमो से शायद आप सभी अवगत हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो बेहद चौंकाने वाले है। इंटरनेशनल डायबिटीज फाउंडेशन अनुसार हिंदुस्तान की तकरीबन 6 करोड़ जनता मधुमेह की चपेट में आ चुकी है तथा प्रतिवर्ष अंदाजन 10 लाख लोग इस बीमारी की वजह से मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अगर इस बीमारी की यही रफ्तार रही तो वर्ष 2030 तक यह संख्या दुगना होने का अनुमान है, जो बेहद चिंता का विषय है।

अचानक भूख बढ़ना, अधिक प्यास लगना, बार बार मूत्र त्याग के लिए जाना, शरीर में बिना कारण कमजोरी व खुजली महसूस होना, पकने वाली फुंसियां होना, घाव हो जाने पर देर से भरना, वजन में कमी होना आदि कई ऐसे लक्षण है जो इस बीमारी में प्रमुखता से पाए जाते हैं। रक्त परीक्षण में रक्त शर्करा अपने निर्धारित मान से ज्यादा मिलती है।

जहां तक इस बीमारी के कारणों की बात करे तो पैंक्रियास के बीटा सेल्स से निकलने वाला इंसुलिन नामक हार्मोन की मात्रा में कमी या फिर शरीर की कोशिकाओं पर विशेष रूप से मांस व चर्बी के ऊतक (Tissues) पर उसका निष्क्रिय होना पाया गया है जिसे इंसुलिन रजिस्टेंस कहते है।  इंसुलिन की कमी या निष्क्रियता की वजह से शरीर की कोशिकाएं रक्त से अपने पोषण के लिए ग्लूकोस को अपने अंदर नहीं ले पाती है और इस कारण रक्त में ग्लूकोस की मात्रा हमेशा व हर समय सामान्य से अधिक रहती है। यह बड़ी हुई रक्त शर्करा ही सारे फसाद की जड़ होती है जो पूरे शरीर को अंदर ही अंदर खोखला कर देती है। आनुवंशिकता, कार्बोहाइड्रेट व रिफाइंड युक्त भोजन का अति सेवन तथा शारीरिक व्यायाम का अभाव, ये 3 मुख्य कारण है जो इंसुलिन की कमी या निष्क्रियता के लिए जिम्मेदार होते हैं।

आज विश्वभर के वैज्ञानिक व चिकित्सक इस बीमारी का स्थाई  उपचार ढूंढने में जुटे हुए हैं किंतु इंसुलिन को छोड़कर अभी तक कोई कारगर औषधि का अविष्कार नहीं कर पाए हैं। कई कारणों से मुंह से दी जाने वाली औषधियां (ओरल हाइपोग्लाइसेमिक्स) भी समय के साथ रक्त में शकर के स्तर को नियंत्रित करने में नाकाम हो जाती है जिससे उनकी मात्रा बढ़ानी पड़ती है या फिर मरीज को इंसुलिन थेरेपी शुरू करनी पड़ती है। इंसुलिन की मात्रा भी समय के साथ बढ़ानी पड़ सकती है। इस बीमारी के चलते कई मरीजों को अपनी आंख( डायबिटिक रेटिनोपैथी) व किडनी (डायबिटिक नेफ्रोपैथी) से हाथ गंवाना पड़ता है, तो अनेकों को जीवनभर हार्टअटैक, लकवा, पेरीफेरल न्यूरोपैथी व डायबिटिक फुट के साथ जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। डायबिटिक फुट में मरीज के पैरों में स्पर्श का एहसास कम होते चले जाता है जिससे छोटी चोट भी गंभीर संक्रमण एवं घाव का रूप ले सकती है जो फिर भरता भी नहीं है क्योंकि उस जगह संवेदना तथा रक्त का प्रवाह, दोनों का अभाव रहता है। आवश्यक होने पर पैर भी काटना पड़ सकता है। कुल मिलाकर मधुमेह के दुष्परिणामों से शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रभावित होती है। इन तथ्यों को पढ़कर आप लोग इस बीमारी की गंभीरता एवं विकरालता से परिचित हो गए होंगे। दुख कि बात यह है कि मधुमेह की वजह से उत्पन्न होने वाले इन दुष्प्रभावों का वर्तमान में कोई कारगर इलाज भी मौजूद नहीं है।

आयुर्वेद शास्त्र में भी इस रोग का बेहद विस्तृत वर्णन विभिन्न संहिताओं में प्रमेह रोग के अंतर्गत तथा स्वतंत्र रूप से भी प्राप्त होता है। शास्त्र मतानुसार इस व्याधि में शरीर की सभी धातुओं (Tissues) कि अग्नि( Enzymatic and assimilation process) कमजोर हो जाने से उनका पोषक भाग कम तथा मल भाग ज्यादा बनता है जिसे क्लेद (Pathological unassimilated fluid) कहते हैं। यह क्लेद वात दोष से प्रेरित होकर ओज (जो कि सभी धातुओं का सार है तथा शरीर की जीवनीय शक्ति है) को साथ लेकर मूत्र मार्ग से निष्कासीत होता है। क्योंकि ओज स्वाद में मधुर रस होता है इसीलिए इस व्याधि को मधुमेह या ओजोमेह कहा गया है। आनुवंशिकता के अलावा भोजन में मधुररस के साथ साथ दही, खट्टे व नमकीन पदार्थो का अति सेवन, हर समय सोते रहना, शारीरिक परिश्रम से परहेज़ रखना आदि कारणों को इस व्याधि की उत्पत्ति में उत्तरदायी माना गया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि यदि हम आयुर्वेद सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए अपनी वर्तमान जीवन शैली व भोजन में आवश्यक बदलाव लाएं तो हम ना सिर्फ इस बीमारी के दुष्प्रभाव को बेहतर रूप से पराजित कर पाएंगे बल्कि आने वाले समय में एक बहुत बड़े तबके को इस बीमारी से बचा भी सकेंगे। किंतु आज अधिकतर लोग मात्र नीम करेला जामुन या बेलपत्र के सेवन को ही आयुर्वेदिक इलाज मानते हैं और आराम नहीं मिलने पर आयुर्वेदिक इलाज के प्रति विश्वास को खो देते हैं। वे किसी आयुर्वेद चिकित्सक से एक बार परामर्श लेना भी मुनासिब नहीं समझते हैं।

तो आइए जानते हैं आयुर्वेद पक्ष से किस तरह से मधुमेह व्याधि को नियंत्रित किया जा सकता है तथा उसके दुष्प्रभाव से भी बचा जा सकता है।

भोजन में मधुररस के साथ साथ नमकीन व खट्टे पदार्थों( sour and salty diet) के अति सेवन से बचें क्योंकि नमकीन व खट्टे पदार्थ शरीर में पानी को रोककर क्लेद को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसी कारण रोटी के लिए आटा पीसाने से पहले अनाज को कड़ाई में हल्का भून ले ताकि उनके अंदर का जलीय तत्त्व सुख जाय। पुराने गेहूं चावल में जलीय तत्व कम होता है, इसलिए इनका इस्तेमाल ज्यादा उपयुक्त है। इन अनाज के अलावा ज्वार बाजरा तथा ओट्स का सेवन भी श्रेयस्कर है क्योंकि यह पचने में हल्के होते हैं और जैसा कि विदित है, मधुमेह में सभी धातु की अग्निया मंद होती है। (Depression of enzymatic and assimilation process)

नियमित व्यायाम करें क्योंकि यह अग्निवर्धक तथा क्लेदनाशक होता है।

सामान्यतः मधुमेह के रोगियों को एक बार में भरपेट भोजन की सलाह ना देकर दिन में तीन या चार बार थोड़ा थोड़ा भोजन करने को कहा जाता हैं क्योकि इन्सुलिन की कमी या निष्क्रियता के चलते रक्त शर्करा पहले से ही बड़ी होती है। किंतु आयुर्वेद इस मत को स्वीकार नहीं करता है। पहले का भोजन पचे बिना फिर से भोजन करने को शास्त्र में अध्यशन कहा जाता है जो की फिर से मंदाग्नि का कारण बनता है। इसलिए आयुर्वेद अनुसार मुख्य भोजन दो ही बार करे।

यदि भोजन के बाद की शर्करा (PPBS) ज्यादा है तो ऐसे में मुख्यतः अग्निवर्धन व आमपाचक चिकित्सा करेI ( Enhancement of tissue enzymatic and assimilation process) इस हेतु शास्त्र में जठराग्नि व धात्वग्नि स्तर पर कार्य करने वाले विभिन्न औषध कल्प जैसे सूतशेखर रस, आरोग्यवर्धिनी वटी, चित्रक, भूम्यालकी ,नागरमोथा व त्रिकटु का प्रयोग अपेक्षित है।

खाली पेट शर्करा (FBS) ज्यादा रहने पर मुख्यतः क्लेद शोषण चिकित्सा करेंI  (Medication for drying waste pathological fluid) इस हेतु आंवला, हल्दी, नीम, करेला, बेलपत्र, जामुन, गुड़मार, त्रिफला आदि का सेवन अपेक्षित है। औषध कल्पो में त्रिवंग भस्म, चंद्रप्रभावटी व  शिलाजत्वादि वटी का प्रयोग भी किया जाता है। शिलाजीत उत्कृष्ट क्लेदशोषक , योगवाही तथा रसायन द्रव्य है।

मोटे रोगियों में  मांस व मेद धातु ( Muscle and Fatty tissue) को कम करने के लिए कांचनार गुगल तथा त्रिफला गुगल का प्रयोग भी आवश्यक है या फिर मांस मेद पाचक योग भी दे सकते है।

दुबले रोगियों में अग्निवर्धन, क्लेदशोषक चिकित्सा के साथ साथ धातुवर्धन( Tissue mass increase)भी आवश्यक है ताकि वात दोष के प्रभाव को कम किया जा सके। इस हेतु अश्वगंधा घृत, सुवर्णमालिनी वसंत, वसंत कुसुमाकर रस , शिवा गुटिका , बला तेल मात्राबस्ति आदि का प्रयोग अपेक्षित है।

इन्सुलिन डिपेंडेंट डायबिटीज जो 20 से 30 वर्ष के अंदर ही उत्पन्न हो जाती है तथा जिसमे तेज़ी से शरीर के वजन में कमी होती है, उसमे शीघ्र ही  आशुकारी, बल्य, वातशामक व रसायन गुणों से युक्त औषधियों का युक्तिपूर्वक प्रयोग आवश्यक है। इस हेतु दुबले रोगियों में प्रयुक्त औषध कल्पो  का उपयोग अपेक्षित है।

इस तरह से आयुर्वेद सिद्धांत व चिकित्सा को अपनाकर हम बेहतर तरीके से मधुमेह पर नियंत्रण पा सकते हैं तथा उसके दुष्प्रभाव से भी बच सकते हैं।