Treating Osteoarthritis through Ayurveda

पढ़े डाबर की मासिक पत्रिका मे प्रकाशित डा सतीश अग्रवाल के लेख संधिवात (Osteoarthritis) को

सामान्य किन्तु गति को बाधित कर जीवन को कष्टमय बनाने वाला जोड़ो का यह रोग आज एक आयु पश्चात् सभी लोगों में प्रायः देखने को मिलता है, जिसमें दोनो घुटनों में चलते-बैठते, सीढ़ी चढ़ते, उकड़ु बैठते समय दर्द और जकडाहट मिलती है। जैसे-जैसे यह रोग पुराना होते जाता है, वैसे-वैसे चलने या बैठने पर दर्द भी बढ़ते जाता है।

इस रोग के कारणों में जहाँ आयु, आनुवांशिकता व शरीर भार मुख्य है, वही विकृत जीवन शैली भी पूर्णतः जिम्मेदार है। वर्तमान समय में भौतिक संसाधनों के चलते ज्यादातर लोग अपने शरीर को रत्ती मात्र भी कष्ट देना नहीं चाहते है। शारीरिक व्यायाम के फायदे सब जानते है किन्तु अधिकतर लोग उसे अनदेखा करते है। वहीं दूसरी और खाने में तलन, मिर्च मसाले वाली चीजें व फास्ट फुड का प्रचलन बड़ी तेजी से बढ़ चुका है जिससे शरीर में वात व पित्त दोष की अधिकता हो रही है, जबकि घुटनों को स्वस्थ रखने के लिए नियमित व्यायाम व कफ का प्राबल्य जरूरी है जो जोड़ की मांसपेशी व कार्टिलेज की मजबूती तथा चिकनाहट को बरकरार रखता है।

आधुनिक विज्ञान में Osteoarthritis को चार विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित किया गया है। जैसे-जैसे मरीज आगे की अवस्था में पहुँचता है, श्लेष्मक कफ (synovial fluid) जो कि घुटनों में चिकनाई प्रदान करता है, वह भी कम होने लगता है। साथ ही साथ तरूणास्थि (cartilage) तथा जोड़ में भाग लेने वाली अस्थि के छोर का भी क्षय होने लगता है।

जहाँ तक आयुर्वेद से इस रोग की बात करे तो यह एक वातज रोग है। वात के लघु, रूक्ष, खर गुणों के चलते तरूणास्थि (cartilage) शुष्क, पतली व खुरदुरी होकर टुटने लगती है जिससे जोड़ में उपस्थित अस्थियों के छोर आपस में टकराते है, श्लेष्मकला (synovial membrane) में भी क्षोभ पैदा करते है और दर्द व जकड़ाहट को जन्म देते है। साथ ही प्रकुपित वात के कारण श्लेष्मक कफ (synovial fluid) का शोष तथा मांसपेशियों में दुबर्लता होना भी स्वभाविक है।

चिकित्सा:-
आयुर्वेद में हर रोग में साम व निराम का विचार किये बिना चिकित्सा करना शास्त्र विरूद्ध है। आयुर्वेद की दृढ़ मान्यता है कि शरीर में किसी भी रोग की उत्पत्ति दोष की संचय अवस्था से ही हो जाती है, जिसमें विकृत आहार-विहार, मंदाग्नि व आम उत्पत्ति मुख्य कारण होते है। अतः सबसे पहले साम-निराम का विचार आवश्यक है।

साम अवस्था में घुटनों में सूजन, जकड़ाहट व भारीपन रहता है जिसमें सबसे पहले सलवण उपनाह का बंधन करना आवश्यक है। पश्चात् रूक्ष व उष्ण सेक अपेक्षित है। आम पाचन हेतु शुण्ठी, निर्गुण्ड़ी, देवदारू, पुनर्नवा, शल्लकी, आदि जड़ी-बूटियों का सेवन भी आवश्यक है।

आमपाचन पश्चात् अस्थि, तरूणास्थि व मांसपेशी को पोषण देने वाले निम्न चार प्रकार के चिकित्सा क्रम आवश्यक है।

  • मांस अस्थिपोषक चिकित्सा (दूष्यपरक चिकित्सा)- इसके अन्तर्गत अश्वगंधा, अर्जुन, यष्टीमधु, हड़जोड़, व कुक्कुटाण्डत्वक भस्म का सेवन अपेक्षित है। इसी के साथ अस्थिमज्जापाचक कल्प तथा तिक्तक्षीर बस्ति का नियमित प्रयोग भी श्रेयस्कर है।
  • वातशमन व कफवर्द्धन चिकित्सा (दोषपरक चिकित्सा) – इसके अन्तर्गत पंचतिक्तघृत, गोखरू व शतावरी के कल्प का सेवन कराना चाहिए। घृत अपने गुरू, स्निग्ध तथा श्लक्षणगुण से वातशमन व कफवर्द्धन करता है। तिक्तरस से भावित होने पर अग्निवर्द्धन कर्म भी करता है। कार्टिलेज में हो रहे घर्षण एवं टुट-फुट को रोकने के लिए लाक्षादि गुगल व यशद भस्म का सेवन भी आवश्यक है।
  • लाक्षणिक व शूलहर चिकित्सा:- इसके अन्तर्गत वातविध्वंसक रस, योगराज गुगल, महारास्नादि काढ़ा, शल्लकी, निर्गुण्डी, हरिद्रा व मेथीदाना का प्रयोग अपेक्षित है।
  • रसायन चिकित्सा – इसके अन्तर्गत आमलकी व गिलोय का सतत् प्रयोग भी लाभकारी रहता है क्योंकि ये द्रव्य रसायन कर्म द्वारा दोष धातु मल को साम्यावस्था में स्थापित रखने में मदद करते है।

व्यवहार में चार विभिन्न आनुषंगिक क्रियाएं भी प्रचलन में है।

  • जानुबस्ति – यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्रक्रिया है जिसमें संधिप्रदेश की जकड़ाहट में कमी, संधिप्रदेश को जाने वाले रक्त के प्रवाह में वृद्धि तथा मांसपेशिओं में बल की प्राप्ति होती है।
  • दशमूल धारा – इसमें दशमूल क्वांथ को धारा के रूप में संधिप्रदेश पर 15 से 20 मिनिट तक गिराया जाता है।
  • अग्निकर्म – संधि में किसी स्थान विशेष पर अत्याधिक वेदना व जकड़ाहट रहने पर यह कर्म किया जाता है।
  • रक्तमोक्षण – यह विशिष्ट प्रक्रिया भी संधि में शोथ व दाह की अनुभूति होने पर आवश्यकतानुसार की जाती है।

व्यायाम के अन्तर्गत quadriceps मांसपेशियों को बल देनेवाली कसरत को भी नियमित रूप से करना चाहिए। अंततः Osteoarthritis को विभिन्न आयुर्वेदिक प्रक्रियाओं व औधषियों से स्थिर रखा जा सकता है तथा समय रहते इलाज लेने पर घुटनो के प्रत्यार्पण से भी बचा जा सकता है।